पितृव्य
इंद्रप्रस्थ
कुरुक्षेत्र
युद्ध के ३६ वर्ष पश्चात…
वृषकेतु द्रुतगति से राजगृह की ओर चले जा रहा
है। अभी कुछ क्षण पूर्व ही द्वारपाल ने सन्देश दिया कि हस्तिनापुर से महामहिम पधारे
हैं। और अपने प्रिय तातश्री के आगमन के समाचार से वृषकेतु के अंतर्मन में एक भिन्न
उत्तेजना जागृत होने लगती है। अपने तातश्री की अनुपस्थिति में उनके पत्रों की प्रतीक्षा
वृषकेतु को नित्य ही रहती है। यद्यपि वह इंद्रप्रस्थ के राजा है, अपने तात के आधीन
है। और उसे वृषकेतु अपना सौभाग्य मानता है। किन्तु आज वह अपने तात से कुछ रुष्ट सा
प्रतीत होता है। उसकी गति में उसके साथ निहायत प्रश्न भी द्रुतगति से तात तक पहुंचना
चाहते हैं। कुछ दिन पूर्व ही हस्तिनापुर से एक पत्र आया था जिसमें तातश्री ने जटिल
शब्दों में कुछ कहने का प्रयास किया था। यों तो वृषकेतु उन शब्दों का अर्थ जान चूका
था, किन्तु वह उन्हें स्वीकार करने के लिए तत्पर नहीं था।
"मैं उन्हें नहीं जाने दूंगा!" वृषकेतु
स्वयं से बड़बड़ा रहा था। "वे ऐसे कैसे जा सकते हैं? क्या मेरे प्रति उनका कोई उत्तरदायित्व
नहीं है?"
इतने में वह राजगृह में आ पहुंचा। राजगृह की पश्चिम
दिशा की बारजा में महामहिम खड़े थे। वृषकेतु के लिए अपने तातश्री को पहचानने के लिए
केवल उनके श्वेत वस्त्र ही पर्याप्त थे। गृहस्थी में होने के पश्चात भी उनका परिधान
कितना सौम्य था, ज्यों गृहस्थी में भी वे संन्यास का निर्वहन कर रहे हो! महामहिम बारजा
से प्रासाद के रमणीय उद्यानों का आनंद ले रहे थे। अथवा अपने भातृज के प्रश्नों का उत्तर
सोच रहे थे। यह संवाद जितना कठिन वृषकेतु के लिए होनेवाला था उससे कठिनतर यह महामहिम
के लिए होनेवाला है। अपने पुत्र से भी अधिक प्यारे अपने भातृज से अंतिम विदा लेने जो
आये थे वे!
इंद्रप्रस्थ के मायावी उद्यान कुछ पचास वर्ष पूर्व
इससे भी अधिक सुन्दर थे। दिन के तीव्र प्रकाश में भी मायासुर ने निर्माण किया हुआ यह
प्रासाद शशि की शीतल कौमुदी पर बहती शीततरंगों से किसी भी मनुष्य को अपनी माया के रमणीय
समुद्र में डूबाने की कला रखता था। ग्रीष्म की दाहकता में हिमशैल हिमालय के सर्वोच्च
शिखर की शीतलता का अनुभव करा सकता था यह प्रसाद। किन्तु इस प्रासाद की यही माया एक
दिन महायुद्ध के महायज्ञ में पायस बनेगी यह किसने सोचा था?
वृषकेतु के सारे प्रश्न अपने तातश्री के श्वेत
व् शीतल रूप को देखकर ही विस्मरण के अंतहीन समुद्र में डूब गए। उन्हें देखकर जिस परमानन्द
का अनुभव होता था वह तो स्वयं ईश्वरीय साक्षात्कार के समान था।
"प्रणाम, तातश्री!" वृषकेतु ने शिरसा
नमन करते हुए कहा। महामहिम उसकी ओर मुड़ते इससे पहले ही वृषकेतु ने अपना परामर्श अपने
तातश्री के समक्ष रख दिया।
"यह राज्य मेरे लिए अत्यंत विशाल है, तातश्री!"
वृषकेतु ने अपने तातश्री महामहिम श्वेत परिधान की ओर देखते हुए कहा। "इस दायित्व
का निर्वाह मैं अकेले नहीं कर सकता। इंद्रप्रस्थ अंग और मगध दोनों से बड़ा है। आप इन
सबका भार मेरे कन्धों पर रखकर नहीं जा सकतें। मैंने आपकी छत्रछाया के बाहर एक क्षण
नहीं व्यतीत किया है। फिर आप मुझे जीवनभर के लिए अपनी छत्रछाया से कैसे मुक्त कर सकते
हैं?"
महामहिम इंद्रप्रस्थ के रमणीय उद्यानों से अपनी
दृष्टि हटाकर कुछ क्षण यों ही नेत्र बंद करके खड़े रहे। जिन प्रश्नों के आने की उन्हें
अपेक्षाएं थीं वे यही प्रश्न थे, किन्तु कदाचित आज वे उन प्रश्नो के संतुष्ट उत्तर
देने में असमर्थ थे। महामहिम अर्जुन वृषकेतु की ओर मुड़ें और अपने भातृज को स्थिर दृष्टि
से देखने लगें। वृषकेतु भी बहुत दिनों पश्चात पधारे अपने तातश्री को देखता रहा। आज
तातश्री के नेत्रों में दिव्य आलोक नहीं था जिसे देखने की और जिससे प्रेरणा लेने की
वृषकेतु की नित्य ही अभिलाषा होती थी। आज उनके मुखमण्डल पर एक विचित्र सा तिमिर छाया
है, संभवतः व्याकुलता का। वृषकेतु ने अपने तातश्री को व्याकुल तो इससे पूर्व भी कई
बार देखा था, किन्तु आज वह व्याकुलता कुछ भिन्न है। मानो कि वह उनके मन में निवास करने
का निश्चय ले चुकी हो।
यद्यपि वृषकेतु अब कोई बालक नहीं था, वह एक सामर्थ्यवान
योद्धा बन चूका था। किन्तु आज भी अर्जुन की दृष्टि में वह केवल एक निरीह बालक था, जिस
पर उन्हें अत्याधिक स्नेह था। वह केवल अर्जुन के परिताप का चिह्न नहीं अपितु उनकी पुत्राभिलाषाओँ
का प्रतिक था। अभिमन्यु और श्रुत्कार्मन के पश्चात केवल वृषकेतु ही था जिससे उन्हें
अपने पुत्र का सुख मिलता था। यद्यपि वृद्धि के साथ वृषकेतु में अपने पिता का प्रतिबिम्ब
अधिक स्पष्ट होता जान पड़ता था। उस आनन् का प्रतिबिम्ब जिस पर अर्जुन ने जीवनभर केवल
अपने लिए घृणा देखी थीं। किन्तु यह प्रतिबिम्ब सदैव अपने आनन् पर अर्जुन के लिए अत्याधिक
मान धारण करता है। और वृषकेतु के स्वभाव की वह विनम्रता स्वयं अर्जुन के दिए हुए संस्कारों
की झांकी थी।
"किन्तु यह राज्य अभी भी तुम्हारे लिए पर्याप्त
नहीं है।" अर्जुन ने अपने भातृज से विनम्रतापूर्वक कहा। "यह समग्र राज्य
तुम्हारे पिता का उत्तराधिकार है। और उनकी इस विरासत की, उनके वंश की वृद्धि तुम्हें
करनी ही होगी।"
"मेरा उत्तराधिकार यह राज्य नहीं है, तातश्री।
मेरा उत्तराधिकार है मुझे मिला हुआ यह कुटुंब - यह परिवार।"
अर्जुन बिना कोई प्रत्युत्तर दिए सुनते रहे।
"आप इतने वर्षों से मेरे लिए राज-प्रतिनिधि
रहे हैं। और मुझे आगे भी आपके मार्गदर्शन की आवश्यकता है। मैं अपने पिता की भाँती तो
नहीं हूँ। मैं तो उनकी कीर्ति भी केवल कथाओं के माध्यम से जानता हूँ। किन्तु मैंने
उन्ही की भाँती यशस्वी और कीर्तिवान मनुष्य को प्रत्यक्षरूप से देखा है।" वृषकेतु
एक क्षण के लिए ठहरा। "मैंने जीवनभर आपको अपना आदर्श माना है। और यदि ईश्वर से
मेरी कोई प्रार्थना है तो वह बस केवल यही है कि मैं आपके चरणों की धुल मात्र बन सकूँ।
और कदाचित आपकी छत्रछाया ही मेरे लिए वह वरदान है। आप केवल मेरे राज-प्रतिनिधि और तातश्री
ही नहीं, अपितु मेरे संरक्षक, मेरे गुरु एवं मेरे पिता हैं। मुझे सदैव आपकी आवश्यकता
रहेगी।"
अपने भातृज के इन शब्दों से यह तो स्पष्ट था कि
अर्जुन ने अपने ज्येष्ठ भ्राता के प्रति और उनके पुत्र के प्रति अपने दायित्वों का
निर्वाह अत्यंत निष्ठा से किया था। पितामह भीष्म ने अर्जुन के व्यक्तित्व में जिन गुणों
का बीज वर्षों पूर्व बोया था, उन्ही गुणों का वही बीज अर्जुन ने वृषकेतु के व्यक्तित्व
में भी बोया था। और आज वह बीज कुरुवंश के दो महान स्तम्भों में परिवर्तित हो चूका था।
अर्जुन जानते थे कि अब समय आ चूका है जब कुरुवंश का अतीत उससे पृथक हो कर कुरुवंश को
भविष्य की ओर प्रस्थान करने की अनुमति दें, कि सम्पूर्ण भारतवर्ष को अपने उत्तराधिकारियों
को सौंपकर अब वे वन की ओर प्रस्थान करें। तदुपरांत अर्जुन के नित्यसखा वासुदेव कृष्ण
भी अब वैकुण्ठ की ओर प्रस्थान कर चुके थे। अब उनके और अतिरिक्त पांडवों के लिए कुछ
करना शेष नहीं था। कुरुवंश को उसका भविष्य मिल चूका था और हस्तिनापुर एवं इंद्रप्रस्थ
को उनके उत्तराधिकारी। अब समय था अपने जीवन के अंत की दिशा में प्रस्थान करने का। सरिता
को अपने उद्गम से निकलने के पश्चात कभी न कभी तो समुद्र में समाना ही पड़ता है, अन्यथा
वह भौतिकता के मध्य में ही सूख जाएगी।
"मैंने तुम्हें केवल मेरी या तुम्हारे पिता
की कीर्ति तक सिमित रहने की शिक्षा नहीं दी है, पुत्र!" अर्जुन ने वृषकेतु से
स्नेहभरे शब्दों में कहा। "तुम इससे भी आगे बढ़ सकते हो। स्मरण रहे कि तुम्हारे
पास वह है जो मेरे और तुम्हारे पिता के पास नहीं था। एक समृद्ध परिवार। तुम्हारे
पास एक शांतिपूर्ण समृद्ध परिवार है जहां केवल प्रेम और हर्ष का साम्राज्य है। कुरुक्षेत्र
के युद्ध से पूर्व हमने इस दिन की कल्पना तक नहीं की थीं। किन्तु आज यह आभाष हो रहा
है कि हम धर्म और शांति का राज्य स्थापित करने में सफल हुयें। हमने अपना जीवन अव्यवस्थितता
के विश्व में व्यतीत किया जिससे हमारा भविष्य अर्थात तुम, परीक्षित, आदि एक शांतिपूर्ण
भारतवर्ष को नए युग की ओर अग्रसर करो। अब अपने परिवार को तुम्हारा मार्गदर्शन करने
दो और तुम उनका मार्गदर्शन करो। साथ मिलकर ही भारतवर्ष श्रेष्ठता की सर्वोपरिता को
प्राप्त कर सकता है।” महामहिम ने पुनः उन उद्यानों की ओर दृष्टि करते हुए कहा, “हमें
अतीत बने हुए तो वर्षों व्यतीत हो चुकें। हमारा समय युद्ध के साथ ही समाप्त हो चुका
था। यहाँ तो हम केवल निमित्तमात्र हैं।” और कुछ व्याकुल स्वर में उन्होंने कहा, “और
अब यहाँ से भी विदा लेने का समय आ चूका है।”
महामहिम कुछ क्षण शब्दहहीन ही खड़े रहे। तत्पश्चात
वे वृषकेतु की ओर बढे और बोले, “हमने निर्णय लिया हैं कि हस्तिनापुर के सिंहासन पर
परीक्षित का राज्याभिषेक इसी माह में होगा; और इंद्रप्रस्थ के सिंहासन पर तुम्हारा
पुनः पट्टाभिषेक भी। तत्पश्चात - तत्पश्चात हम वन की ओर प्रस्थान करेंगे।"
"किन्तु-"
"पुत्र," महामहिम ने अतिस्नेहभरे शब्दों
से वृषकेतु को कहा। "समय एक अनिरुद्ध प्रवाह है। अतः उसका कर्तव्य है आरम्भ से
अंत तक बहना। उसी प्रकार हम, जो समय के प्रवाह में अपना जीवन व्यतीत करते हैं - हमारा
भी कर्तव्य है आरम्भ से अंत तक प्रवास करना। केवल इतना स्मरण रखना, पुत्र, कि मनुष्य
अपने जीवन के सुख और दुःख की परिस्थितियों का निर्माण स्वयं अपने ही कर्मों से करता
है। अतः अपने कर्मों को सदैव धर्मपथ पर स्थिर रखना। क्योंकि धर्म के लिए, धर्म के द्वारा
और धर्मपथ पर किये गए कर्म ही हमारे जीवन तथा समाज का सुगति दे सकते हैं।"
"मैंने क्या कभी आपके शब्दों का निरादर किया
है जो आज करूँगा?" वृषकेतु के नेत्रों से अश्रुधारा को देखते हुए महामहिम का ह्रदय
भी एक क्षण के लिए द्रवित हो उठा। वे जानते थे कि यदि आज वृषकेतु के पिता यहां होते
तो वे भी अपने पुत्र के इस रूप को देखकर अवश्य गर्व करते।
"तुम्हारे पिता को तुम पर अवश्य ही गर्व
होगा, पुत्र!" महामहिम ने कहा।
"और आपको?" वृषकेतु ने निरीह भाव से
पूछा।
"मेरे लिए तुम मेरी क्षमा हो, मेरे जघन्य
पाप का परिताप हो एवं मेरे पुत्रों व् पौत्रों की भाँती ही मेरा गर्व भी हो।"
युद्ध की भीषण हुंकारों की ध्वनि अब मानो यह विश्व
विस्मृत कर चूका था। किन्तु आज भी वह इन शूरवीरों के अतःकरण में उतनी ही सक्रीय थी
जितनी कि वह युद्ध के समय थी। और अब समय था उनके लिए भी उस ध्वनि से मुक्ति पाने का।
ॐ शांतिः
शांतिः शांतिः
- भार्गव पटेल
टिपण्णी: वृषकेतु
कर्ण के दस पुत्रों में सबसे छोटा पुत्र था। कुरुक्षेत्र युद्ध के समय उसकी आयु बहुत
कम होने के कारण वह युद्ध का भाग नहीं था। और इसी लिए वह युद्धोपरांत कर्ण का एक मात्र
जीवित पुत्र था, जबकि शेष नौ पुत्र कर्ण के पूर्व ही युद्ध में वीरगति को प्राप्त हो
चुके थे। युद्ध के पश्चात जब पांडवों को कर्ण की वास्तविकता के विषय में ज्ञात हुआ,
तब वे अपने ज्येष्ठ भ्राता के वध से अत्यंत व्याकुल थे। और अत्याधिक व्याकुल थे स्वयं
अर्जुन जिनके हाथों से उनके ज्येष्ठ भ्राता का वध हुआ था। कर्ण की पत्नी कर्ण की चिता
पर ही सती हो गयीं। तत्पश्चात अर्जुन ने वृषकेतु को अपनी पितृछाया के आधीन ले लिया।
अपने दो पुत्र अभिमन्यु और श्रुत्कर्मन की मृत्यु के पश्चात वृषकेतु का संग अर्जुन
के लिए भी सुखदायी था। अर्जुन ने अपने भातृज वृषकेतु और अपने पौत्र परीक्षित को एक
सामान प्रेम, स्नेह एवं शिक्षा दीं; और वृषकेतु और परीक्षित के बीच भी अत्यंत स्नेह
था। अश्वमेध यज्ञ के लिए अर्जुन की विजययात्रा में भी वृषकेतु उनके सहायक रहे थे। पितामह
भीष्म द्वारा पांडवों को दिए गए राज्य के भाग (खांडवप्रस्थ/इंद्रप्रस्थ) पर सम्पूर्ण
अधिकार ज्येष्ठ कुन्तीपुत्र का होता - अर्थात कर्ण का होता। अतः हस्तिनापुर के सिंहासन
पर राज्याभिषेक के उपरान्त ही सम्राट युधिष्ठिर ने इंद्रप्रस्थ सहित कर्ण को दुर्योधन
द्वारा मिले अपने राज्य अंग और कर्ण के स्वयं जीते हुए राज्य कर्णपुत्र वृषकेतु को
दे दिए। किन्तु वृषकेतु उस समय आयु में छोटे थे, इसीलिए उन्हें अर्जुन की छत्रछाया
में उनके प्रतिनिधित्व में राजा बनाया गया था। मौसाल पर्व में श्री कृष्ण के वैकुण्ठ-प्रस्थान
के पश्चात जब पांडवों ने भी वन में जाने का निश्चय ले लिया, तब परीक्षित का हस्तिनापुर
के सिंहासन पर एवं वृषकेतु का इंद्रप्रस्थ के सिंहासन पर राज्याभिषेक कर, कुरुवंश के
भविष्य का उत्तरदायित्व उनके समर्थ कन्धों पर छोड़ उन्होंने वन की ओर प्रस्थान किया।